कूतूब
परिसर कूतूब मीनार एव अन्य भवन
मेहरौली में
कूतूबमिनर तथा उसके आस-पास के क्षेत्र को कूतूब परिसर के रूप में जाना जाता है
इसके अनेक एतिहासिक व पुरातात्विक महत्व की इमारते प्राचीन एव मध्यकालीन इतिहास की
अमूल्य धरोहर है. संभवत:प्राचीन समय में यह शासन कस केंद्र एह होगा. ऐसा मकान जाता
है.
नियाक्र्स और मेगास्थनीज
ने उत्तरी भारत का विवरण दिया परन्तु दिल्ली का उल्लेख नहीं किया. सिकंदरिया का
भूगोलवेता टोलेमी की प्रथम या दूसरी शताब्दी की रिपोर्ट में दाईदला को चर्चा की गई
जो क्या संभवत: दिल्ली थी या नहीं प्रमारो के अभाव में कह पाना कठिन है.
प्राचीन इतिहास की किताबो
में 57 इ.पू. कन्नौज के राजा दिल्लू द्वारा बसाये जाने के कारण इस शहर का नाम
दिल्ली पड़ा जो उपलव्ध जानकारियों के अनुसार कूतूब और तुगलकाबाद के बिच में होना चाहिय.
परन्तु यह निश्चित नहीं खा जा सकता.
कुछ इतिहासकरो ने राजा दिल्लू
का शहर आज साऊथ रिज़ कही जाने वाली पहाडियों पर कही स्थित होने की बात कही है जिससे
जनरल कनिघम और फरिस्ते भी कुछ हद तक सहमत है. 300 इसवी में दिल्ली के बसे होने का प्रमाण
मिलता है. इसके बाद 650 इ. तक दिल्ली का उल्लेख कन्नौज शासको के दौरान नहीं मिलता
है. एसा माना जाता है की 731 ई. में अनंगपाल तोमर में अठारवी शताब्दी में घिलिका
दिल्ली के प्राचीन सात नगरो में प्रथम जो राजा घिलू के प्राचीन शहर के अवशेष पर
स्थापित किया था जिसने पड़ोसी राज्य हरियाणा से शासन किया जो आज भी दिल्ली-हरियाणा सीमा
पर तुगलकाबाद और फरीदाबाद के बीच अनन्गम गाव है जहा पहाडियों पर दीवारों और पुरानी
इमारतों के अवशेष है. इसे अनंगपाल प्रथम के शहर का हिस्सा मन जाता है. तोमर ने सूरजकुंड
को छोड़कर 15 कि.मी. उत्तरी पस्चीम की ओर जाकर एक न्य शहर बसाया जो आज मेहरोली है. 1052 ई. तोमर वंश के
शासक अनंगपाल द्रित्ये कन्नौज का
राजा था. जिसने कन्नौज की राजधानी दिल्ली लाने का फेसला किया
\. इस फैसले के कारणों की इतिहासकरो ने चर्चा नहीं की है अनंग पाल द्वतीय ने
मेहरौली में एक किला एव शहर बनवाया जिसकी दीवारे लाल ईटो की थी इसलिए इस किले को
लालकोट कहा गया जो बहुत बड़ा नहीं था बाद में इसका विस्तार किया गया. लालकोट सन 1060
ई. के आस-पास आयता कार किला था जिसकी आबादी अधिक नहीं थी. इसके अवशेस कूतूबमिनार व
उसके आस-पास दिखाई देते है. इसकी खाई को भर दिया गया है. आगे चौहान शासको ने इसे
जीतकर अपने राज्य में मिलाया और बाद में इसे पथ्वी राज तर्तीय ने अपनी राजधानी
बानाया राय्पिथोरा के किले एव शहर बनाए जाने के पश्चात लालकोट उसके बिच में आ गया.
समय-समय पर इस किले का निर्माण हुआ जिसमे दीवारो की सुरक्षा के लिये बूर्ज़ और गेट
बने है जिसमे गजनी गेट, सोहन गेट और रंजन गेट प्रमुख है.
अजमेर ओअर तुर्की का
कब्ज़ा होने के बाद चौहान अपनी राजधानी लालकोट लाए. दिल्ली के शासक अनंगपाल तर्तीय
ने अपनी पुत्री का विवहा चौहान शासको से किया. इसी लालकोट किले के अंदर बसे शहर को
दिल्लिका कहा गया है. दिल्ली इसी शब्द से बना है.
यद्दपि अन्य साक्ष्य भी
इस संबंद्ध में है जिसका वर्णन करना होगा.
तोमर राजा के दरबार में ब्राह्राण
ने कहा की लोहे की लाट प्रथ्वी को धारण करने वाले वासुकी या शेष नाग के फन पर रखा
हुआ है. जब तक यह स्तंभ स्थिर रहेगा तुम्हारे शासन अचल रहेगा तोमर राजा को विस्वाश
नहीं हुआ तो उसने कर्मचारी को इस स्तंभ को उखाड़कर देखने का आदेश दिया. उखाड़ने पर
लालरंग की वस्तु जो शायद जंग लगने के करण मिली. सच्चाई जो बभी हूराजा ने तुरंत
स्तंभ उसी जगह गाड़ने के आदेश दिया. तब से कहावत प्रचलित हुई की-‘किल्ली तो दिल्ली
भई तोमर भए मतिहीन’ चंदबरदाई के प्र्थ्बिराज रासो में इसका उल्लेख है.l इसका अर्थ
माना गया की स्तंभ को ढीला करवा दिया ज्ञ्का बादशाह का दिमाग फिर गया है अब उसकी
गद्दी जरूर हिलेगी. 11-12वी शताव्दी मर मुस्लिम आक्र्मकरी द्वारा हिन्दू राजा
पराजित हुए और मुसलमानों का शासन सुरु हुआ. ऐसा माना जाता है की किल्ली के ढिल्ली
शब्द से दिल्ली निकला है सैय्यद अहमद खान ने इसे पाय्पिथोरा के समय की घटना माना
है. मुस्लिम कल में इसे देहली और डेइली तथा अंग्रेजो के समय डेल्ही खा गया. 1930
ई. में न्यू डेहली या नई दिल्ली खा गया. इसे शरीर के महत्वपूर्ण हिस्सा दिल से भी
जोड़ा गया है क्युकी देश का महत्वपूर्ण केंद्र हिने के कारण तथा दिल वालो का शहर
मानकर दिल्ली खा गया है वर्तमान दिल्ली
लालकोट किले वंद शहर के रूप में धील्लिका के रूप में था जो समयानुसार विकसित हुआ. कूतूब
परिसर में आज भी लालकोट के अवशेष मेहरौली के इर्द-गिर्द फैला हुआ देखा जा सकता है
अब इसके मूल मन्दिर के क्षेत्र का स्थान कूतूबमीनार और संबद्ध अन्य स्मारक ने में लिया
है.
चाहवानो ने तोमरो से ‘घिलिका’
को कब्जे में लिया और बारहवी शताब्दी में अपने क्षेत्र में मिलाया. ढीलिका अब किला
राय पिथोरा के रूप में जाना गया क्युकी प्रिथ्विराज त्रितये जिसे राय पिथोरा खा गया था ने
इसे अपनी राजधानी बनाकर इसके चारो ओर विशाल प्राचीर बनवाया. विस्तारीक नगर जिसका
दक्षिण-पश्चिमी आधार पर लालकोट है. एक समय कहा जाता था की किले के 13 दरवाजे है.
बदायू दरवाजे शहर के मुख्य प्रवेश द्वार के साथ होजरानी और बरखा दरवाजा आज भी खड़ा
है. प्राचीर के अवशेष पूर्व के संकुचित अधचिनी गाव से गुजरते हुए बदरपुर-कूतूब या
दिल्ली-कूतूब सडको से पहुचने योग्य है.
प्रथ्विराज का संछिप्त
शासनकाल था. 1192 ई. में मुहम्मद गोरी के हाथों उसकी हार और म्रत्यु के बाद दिल्ली
की गद्दी मुसलमान आक्र्म्कारी के हाथो चली गई.
गोरी के सेनापति कूतूबूद्दीन ऐबक ने अपने आप को दिल्ली का सुल्तान घोषित
किया और राजपूत किले पर कब्ज़ा किया और उससे ही अपनी राजधानी घोषित किया. और ये
दिल्ली सल्तनत और गुलाम वंश की शूरूआत थी.
कूतूबमिनार को ऐबक द्वारा
तोड़े गए 27 हिन्दू और जैन मंदिरों के नक्काशीदार के निर्मित किया गया था. वह अपने
अभिलेख में मस्जिद को जामी मस्जिद के रूप में कहा है और बताया है की ध्वस्त मंदिरो
में से प्र्तियेक के मूल निर्माण पर बीस लाख सिक्के खर्च किये थे.
चौथी शताब्दी के विष्णू
मन्दिर का एक लौह स्तम्भ जो इबादतखाने के सामने खड़ा है जिसे संभवतः अनंगपाल तोमर
ने स्थापित किया था स्तंभ 7.2 मीटर उचा है और जिस पर उस समय का एक लेख लिखा है
एक विशाल और ऊँचा मेहराब पत्थर के आवरण युक्त ईबादत खाना के
सामने केंद्रीय मेहराब को मिलकर बनाया और दो समरूप लेकिन छोटे मेहराब दोनों तरफ
अंग्रेजो के ‘एस’ आक्रति में मेहराबो का निर्माण टोदेदार है. आवरण को सुन्दर दंग
से अन्हीलेखो किनारे को ज्यामिति और फूल-पत्तियों को डिज़ाइन की नक्काशी की गई है.
फिर भी हिन्दू शेली की शिल्प कला मस्जिद के स्तंभ वाली गेलरी में स्पस्ट दिखती है.
हिन्दू अभिप्राय जैसे सपिले प्रतान, बेलबूटो लहराते होए पत्तो के इसके काम है. दो
परिवर्ती शासको ने मस्जिद का विस्तार किया है. कूतूबूदीन के उतराधिकारी और दामाद
शम्सुद्दीन इल्तूत्मिश ने इसके स्तंभ श्रेणियों और प्रथ्नागार का विस्तार करते
होयोये मिस्जिद के आकार को इस तरीके से दूगूना किया को अब कूतूबमीनार मस्जिद के
परिसर में आ गया.
इल्तूत्मिश के मेहराब का
आवरण फूल-पत्तियों सहित सार्सेनिका अलंकरण है जो कूतूबूद्दीन के आवरण के मिश्रित
सजावट से भिन्न है. अलाउद्दीन खिलजी ने एक बारफिर
मस्जिद परिसर को काफी
विस्तार किया. उसने पूर्वी दिशा में दो प्रवेश द्वार उपलब्ध कराए उत्तर और दक्षिण
में में भी एक-एक प्रत्येक पर जिसमे अंतिम ‘अलाई-दरवाजा’ के नाम से जाना जाता है.
विस्तार में उसके मस्जिद के क्षेत्रफल को दूगूना किया और दुसरे मीनार का निर्माण शुरू
करवाया जिसकी कूतूबूद्दीन के मीनार की दूगूनी बनाने की इच्छा थी लेकिन ये अधूरा रह
गया.
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